
डेस्कः 21 मई को CRPF और DRG जवानों ने एक बड़े नक्सल विरोधी ऑपरेशन को अंजाम तक पहुंचाया। सुरक्षाबलों ने 27 नक्सलियों सहित नक्सल कमांडर बसवा राजू को ढेर कर दिया। ऐसा माना गया कि इस ऑपरेशन से नक्सलियों की रीढ़ टूट गई। 1.5 करोड़ के इनामी नक्सली के ढेर होने के बाद केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा तीन दशकों में पहली बार हमने एक महासचिव स्तर के नेता को मारा है। मोदी सरकार 31 मार्च 2026 से पहले नक्सलवाद को खत्म कर देगी, लेकिन सवाल उठता है कि क्या हिंसक नक्सलवाद की विचारधारा को बिना खत्म किए सिर्फ नक्सलियों के खात्मे से नक्सलवाद खत्म हो जाएगा?गृहमंत्री अमित शाह के दावों और वादों के बीच 5 जून को RSS मुख्यालय में इंदिरा गांधी की सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे व नक्सल प्रभावित कांकेर लोकसभा से 5 बार के सांसद अरविंद नेताम ने नक्सलवाद पर एक व्याख्यान दिया। उन्होंने नक्सल विरोधी अभियान की सराहना की, हालांकि उन्होंने नक्सलियों के खात्मे के लिए उनके संहार को नाकाफी बताया। नेताम ने कहा कि नक्सलियों के विचारों को खत्म करना आवश्यक है।
बसवा राजू के मारे जाने के 20 दिन बाद नक्सलियों ने एक बार फिर फन उठाया। सुकमा में 9 जून को IED ब्लास्ट प्लान किया। इस हमले की चपेट में आने से एडिशनल एसपी आकाश राव की मौत हो गई। इस आर्टिकल में हम जानेंगे कि कैसे नक्सलबाड़ी से नक्सलवाद छत्तीसगढ़ पहुंचा और नक्सली हिंसा का कैपिटल बन गया। क्या 6 दशक से फल फूल रहे नक्सलवाद को 10 महीने में खत्म करना संभव है?
क्या है नक्सलवाद
नक्सलवाद एक उग्र वामपंथी आंदोलन है, जो भारत में सक्रिय है। इसकी विचारधारा मार्क्सवादी-लेनिनवादी-माओवादी सिद्धांतों पर आधारित है, जो सशस्त्र क्रांति और वर्ग संघर्ष के माध्यम से सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन लाने का प्रयास करती है।
देश में नक्सलवाद का जन्म
24 मई 1967, जगह पश्चिम बंगाल का नक्सलबाड़ी गांव। मई माह की चिलचिलाती धूम और गर्मी में एक किसान जमींदार नगेन चौधरी के खेत में फसल काट कर रहा था। इसी दौरान जमींदार मुआयना करने पहुंच गया। किसान ने गिड़गिड़ाते हुए जमींदार से कहा कि हुजूर मजदूरी कुछ बढ़ा दीजिए। पहले ही अपनी तकलीफ बता चुका हूं। जमींदार ने किसान की बात को अनसुना कर दिया, लेकिन किसान बार-बार एक ही बात दोहराता रहा। इतने में जमींदार ने गुस्से में आकर किसान के सीने में गोली उतार दी।
इसके बाद अन्य किसानों ने जमींदार को दबोच लिया। फौरन एक सभा बुलाई गई, जिसके नेता कानू सान्याल थे। कानू ने कहा हम तुम्हें जुर्म कबूल करने मौका देते हैं, लेकिन जमींदार नगेन ने जुर्म कबूलने से इंकार कर दिया। तभी भीड़ से एक 6 फिट का आदिवासी शख्स निकला और जमींदार का सर धड़ से अलग कर दिया। यहीं से नक्सलवाद की शुरुआत हुई।
40 अलग-अलग गुटों में बंट गए नक्सली
नक्सलबाड़ी में जमींदार के कत्ल से जन्मा ‘लाल आतंक’ 1973 तक पश्चिम बंगाल के अलावा बिहार और आंध्र प्रदेश तक पहुंच गया। इस दौरान पुलिस से छिपकर नक्सली हिंसात्मक वारदातों को अंजाम देते थे। 1972 में नक्सलियों के पितामह चारू मजूमदार की मौत हो गई और 1973 के अंत तक नक्सलियों के पावर सेंटर पुलिस ने खत्म कर दिए, लेकिन नक्सल आंदोलन की मुख्य वजह जस-की तस बनी रही। इसके बाद का वक्त नक्सल आंदोलन के लिए कठिनाइयों भरा रहा। क्योंकि चारू मजूमदार की मौत हो गई थी। जमींदार नगेन को की हत्या करने वाला जंगल संथाल जेल में था। लगातार आंदोलन के फेलियर से परेशान होकर कानू सान्याल ने नक्सल आंदोलन से मुंहमोड़ लिया। इसके बाद नक्सली करीब 40 अलग अलग धड़ों में बंट गए।
छत्तीसगढ़ में कब और कैसे पहुंचा नक्सलवाद
90 के दशक के बाद नक्सलवाद तेजी से पांव पसार रहा था। सन 2000 आते-आते नक्सली देश के 9 राज्यों के 200 जिलों में अपना अड्डा जमा चुके थे। तब तक छत्तीसगढ़ नहीं बना था, लेकिन संयुक्त मध्य प्रदेश के दक्षिण पूर्वी जिलों में नक्सली अपना अड्डा जमा चुके थे। 1 नवंबर सन 2000 को लाल आतंक नामक नासूर के साथ छत्तीसगढ़ का जन्म हुआ। 2005 आते-आते छत्तीसगढ़ नक्सलवाद का कैपिटल बन गया। 2007 तक देश में नक्सलवाद अपने चरम पर था। इस समय तक देश का एक बड़ा हिस्सा नक्सलवाद से प्रभावित था। जिसे ‘लाल गलियारा’ नाम दिया गया। लाल गलियारा पश्चिम बंगाल से लेकर महाराष्ट्र तक फैला था।
वहीं छत्तीसगढ़ की बात करें तो 2007 तक प्रदेश के 33 जिलों में से 14 जिलों में नक्सलवाद फैल चुका था। हालांकि वर्तमान में केंद्र और राज्य सरकार के प्रभावी नक्सल विरोधी अभियान ने ‘लाल आतंक’ के प्रभाव को कम कर 7 जिलों तक समेट दिया है। देश में नक्सलवाद की शुरुआत पश्चिम बंगाल से हुई और सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित जिले झारखंड में हैं, लेकिन सबसे ज्यादा और बड़े नक्सली हमले छत्तीसगढ़ में हुए।
छत्तीसगढ़ में हुए बड़े नक्सली हमले
1. सुकमा क्षेत्र में अगस्त 2024 में घेराबंदी के दौरान नक्सलियों ने गोलीबारी की और ग्रेनेड से हमला कर दिया। इस हमले में 3 जवान शहीद हो गए।
2. दंतेवाड़ा के अरनपुर में 26 अप्रैल 2023 को नक्सलियों ने सुरक्षाबलों की गाड़ी IED ब्लास्ट में उड़ा दिया। इसमें चालक सहित 10 डीआरजी जवान शहीद हो गए।
3. अप्रैल 2021 में सुकमा और बीजापुर की सीमा पर तेर्रम जंगल में नक्सलियों ने घात लगाकर सीआरपीएफ जवानों पर हमला कर दिया। इसमें 22 जवान शहीद हो गए थे।
4. मार्च 2018 सुकमा जिले में नक्सलियों ने द्वारा प्लांट आईईडी विस्फोट में 9 CRPF के जवान शहीद हो गए।
5. 24 अप्रैल, 2017 को सुकमा में माओवादियों के साथ मुठभेड़ में सीआरपीएफ के 24 जवान शहीद हो गए।
6.12 मार्च, 2017 को सुकमा में सुकमा में माओवादी हमले में सीआरपीएफ के 12 जवानों ने शहादत दी।
7.11 मार्च, 2014 को सुकमा जिले में माओवादी हमले में सुरक्षा बलों के 15 जवान शहीद हो गए।
8. 28 फरवरी, 2014 दंतेवाड़ा जिले में हुए माओवादी हमले में 6 पुलिस अफसर शहीद हो गए।
9.25 मई, 2013 को दरभा घाटी में हुए माओवादी हमले में पूर्व राज्य मंत्री महेंद्र कर्मा सहित कांग्रेस के 25 नेता मारे गए थे। इस घटना को झीरम घाटी हमले के नाम से जाना जाता है।
10.29 जून, 2010 को नारायणपुर जिले में माओवादी हमले में सीआरपीएफ के 26 जवान शहीद हो गए थे।
11.8 मई, 2010 को बीजापुर जिले में नक्सलियों द्वारा बुलेटप्रूफ वाहन में विस्फोट करने से सीआरपीएफ के 8 जवान शहीद हो गए थे।
12. 6 अप्रैल, 2010 को दंतेवाड़ा जिले में माओवादियों द्वारा घात लगाकर किए गए हमले में सीआरपीएफ के 75 जवान शहीद हो गए थे।
पिछले ढाई दशक से छत्तीसगढ़ में फैले आतंकवाद को खत्म करने का दावा करने वाले अमित शाह पहले नेता नहीं हैं, जिन्होंने इसको जड़ से खत्म करने का दावा किया है। इससे पहले भी कई बार दावे किए जा चुके हैं, लेकिन समस्या जस की तस बनी रही। हालांकि इस बार सरकार द्वारा की जा रही कार्रवाई से सकारात्मक नतीजों की उम्मीद है।
‘नक्सलियों का संहार से नहीं खत्म होगा नक्सलवाद’
नक्सल विरोधी अभियान को लेकर पूर्व सांसद अरविंद नेताम का कहना है कि बस्तर में नक्सली समस्या का काफी समाधान हुआ है। इसके लिए केंद्र सरकार को मैं धन्यवाद देता हूं। हालांकि उनका यह भी कहना है कि नक्सलियों को खत्म करने से समस्या नहीं खत्म होगी। इसके बाद भी अगर भारत सरकार सोती रही तो मान कर चलिए समस्या फिर से खड़ी होगी। सरकार को अपनी कार्य योजना के साथ देश के सामने आना चाहिए, ताकि समाज उस दिशा में फिर से न जाए, नहीं तो नक्सली फिर से जिंदा हो सकते हैं।
जहां पहुंचा मोबाइल वहां नहीं पैदा होंगे नए नक्सली
नाम न छापने की शर्त पर सरकार के नक्सल विरोधी अभियान को लेकर छत्तीसगढ़ में सेवा दे चुके सीआरपीएफ के डिप्टी कमांडेंट गृहमंत्री अमित शाह के दावे को सही मानते हैं। उनका कहना है कि जिस तरह की कार्रवाई हो रही है। उससे 2026 तक नक्सली जड़ से खत्म हो जाएंगे। उन्होंने कहा कि एक्शन के साथ ही राज्य के अनछुए इलाकों में तेजी से विकास भी हो रहा है। जिन जगहों पर कनेक्टिविटी हो गई है। सड़क और मोबाइल नेटवर्क पहुंच गया है। वहां के लोग नक्सली नहीं बन रहे हैं।
49 नक्सली छत्तीसगढ़ आए थे
छत्तीसगढ़ के नक्सलियों का गढ़ बनने के कारणों को लेकर डिप्टी कमांडेंट ने बताया कि आंध्र प्रदेश में जब पुलिस ने नक्सलियों पर दबाव बनाया तो वहां से 7-7 लोगों का 7 दस्ता छत्तीसगढ़ आया था। इसकी वजह छत्तीसगढ़ का दंडकारण्य जंगल है। यहां नक्सलियों को छिपने शेल्टर बनाने में मदद मिली। जंगली और अनछुए क्षेत्रों में नक्सलियों ने ट्रेनिंग कैंप बनाए। यही वजह है छत्तीसगढ़ नक्सलियों का सबसे सुरक्षित ठिकाना बन गया था। जहां नक्सली ज्यादा होंगे वहीं ज्यादा हमले होंगे। इसी कारण से छत्तीसगढ़ में सबसे अधिक नक्सली हमले होते हैं।
नक्सलवाद के पीछे राजनीतिक कारण
रायपुर में कई वर्षों से पत्रकारिता कर रहे वरिष्ठ पत्रकार धीरेंद्र शास्त्री बताते हैं कि नक्सलवाद की शुरुआत संयुक्त मध्य प्रदेश में हुई थी। छत्तीसगढ़ का गठन ही इसलिए हुआ था कि पूर्वी मध्य प्रदेश की आवाज भोपाल तक नहीं पहुंच पाती थी। बस्तर जैसे इलाके बहुत ज्यादा पिछड़े हुए थे। धीरेंद्र शास्त्री अबूझमाड़ का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि आज भी वहां के निवासियों को बाहर की दुनिया के बारे कुछ नहीं मालूम है। यही वजह रही की नक्सलियों का छत्तीसगढ़ गढ़ बन गया।
शास्त्री आगे बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में ऐसा कहा जाता है कि बिना नक्सलियों के सरकार नहीं बन सकती है। राजनीतिक दलों ने सत्ता हासिल करने के लिए भी नक्सिलयों का उपयोग किया है। माओइस्ट व सीपीआई के संगठन भी चुनावों में दखल रखते हैं। उन्होंने बताया कि भूपेश बघेल के नेतृत्व में जब कांग्रेस की सरकार बनी थी तो अमित शाह सहित भाजपा के कई नेताओं ने आरोप लगाया था कि नक्सली कहते हैं कि हमारी सरकार बन गई है, जबकि कांग्रेस नेता कहते हैं कि हम लोग ही नक्सलवादियों से सबसे ज्यादा पीड़ित हैं। इस बयान के साथ ही कांग्रेस नेता झीरम घाटी की घटना का उल्लेख करते हैं। शास्त्री ने बताया कि आज भी दबी जुबान में झीरम घाटी हत्याकांड के पीछे सियासी कारण बताए जाते हैं। लेकिन इसके उलट नक्सलियों ने अलग-अलग इंटरव्यू में कहा कि यह घटना एक रणनीतिक चूक थी। इस हमले में निशाना महेंद्र कर्मा थे, लेकिन गलती से अन्य नेता भी चपेट में आ गए।
2014 तक जिला मुख्यालय तक आ जाते थे नक्सली
बस्तर संभाग में करीब एक दशक से पत्रकारिता करने वाले ऋषि भटनागर बताते हैं कि बस्तर संभाग में एक बदलाव की स्थिति बनती चली जा रही है। 2022 में कोंडा नक्सल मुक्त हुआ, हालही में बस्तर जिला नक्सल मुक्त हुआ। अब बस्तर संभाग के 7 में 5 जिले ही नक्सल प्रभावित हैं। उन्होंने कहा कि एक समय था कि नक्सलवादी जिला मुख्यालय तक आकर हमला करते थे। ऐसी स्थिति 2014 तक थी। भटनागर कहते हैं कि 2014 के बाद केंद्र सरकार ने नक्सल विरोधी अभियान काफी जोर-शोर से चलाया। इसके बाद नक्सलवाद की समस्या द एंड की ओर तेजी से बढ़ रही है। उन्होंने बताया कि अमित शाह ने नक्सल समस्या के लिए जो 10 महीने का टारगेट सेट किया है। उसको लेकर जब से काम शुरू हुआ तब से जवानों की तरफ से कैजुअलटी कम हुई है और नक्सलियों की तरफ से कैजुअलटी बढ़ी हैं।
सरकार और आदिवासियों में कम्युनिकेशन गैप
आदिवासी आबादी पर नक्सलियों के प्रभाव के कई कारण हैं, लेकिन प्रमुख कारणों में भाषा, क्षेत्र की उपेक्षा और अशिक्षा है। राज्य से बाहर के लोगों की एक आम राय है कि छत्तीसगढ़ में हिंदी भाषा के अलावा छत्तीसगढ़िया बोली जाती है, लेकिन छत्तीसगढ़ के अलग-अलग क्षेत्रों में आदिवासियों की अलग-अलग बोलियां है। वे हिंदी या छत्तीसगढ़िया बिल्कुल अलग बोलियां हैं। बड़ी संख्या में आदिवासी हिंदी नहीं समझते हैं। बातचीत के लिए योजनाओं के प्रचार-प्रसार के लिए आदिवासी इलाकों में ट्रांसलेटर रखे गए हैं। इसका मतलब है कि केंद्र सरकार व राज्य सरकार की आवाज सीधे आदिवासियों तक नहीं पहुंच पाती है। यह एक बहुत बड़ा कम्युनिकेशन गैप है। यही वजह है कि नक्सलियों के प्रति आदिवासी सिंपैथी रखते हैं।